मंगलवार, 8 जुलाई 2008

नया कवि


नये कदम - नये स्वर’ में इसबार हम आपका परिचय करवा रहे हैं- एक नई संवेदनशील और प्रतिभावान कवयित्री अंजना बख्शी से। यूँ तो अंजना पिछ्ले कुछ वर्षों से कविता लिख रही हैं और उनकी कविताएं हिन्दी की शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में यथा- कथादेश, कादम्बिनी,अक्षरा, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा आदि में छ्पकर चर्चा में रही हैं, पर उनकी कविताओं का पहला संग्रह “गुलाबी रंगों वाली वो देह” शीर्षक से इसी वर्ष ‘शिल्पायन प्रकाशन’ वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032 से प्रकाशित हुआ है। मासूम चेहरे वाली यह बेहद संवेदनशील कवयित्री बचपन में ही पिता को खो देने के बाद से ही रोटी के लिए निरंतर संघर्ष करती रही है। आज भी उसका यह संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। रोजी-रोटी के संघर्ष के साथ-साथ अपने अध्ययन को निरंतर जारी रखने की जद्दोजहद के बीच यह युवा कवयित्री अपने अस्तित्व की सार्थक पहचान की लड़ाई भी अकेले अपने दम पर लड़ती रही है। अपने अध्ययन के सिलसिले में दमोह(मध्य प्रदेश) से चलकर दिल्ली आईं अंजना बख्शी वर्तमान में जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्सिटी में अनुवाद में शोध कार्य कर रही हैं। पत्रकारिता एवं जनसंचार में मास्टर डिग्री प्राप्त हैं। इनकी कविताओं के अनुवाद पाली, उड़िया, उर्दू, तेलगू और पंजाबी भाषा में हो चुके हैं। ग्रामीण अंचल पर मीडिया का प्रभाव, हिंदी नवजागरण में अनुवाद की भूमिका, अंतरभाषीय संवाद, संपादन की समस्याएं, पंजाबी साहित्य एवं विभाजन की त्रासदी आदि विषयों पर इनके लघु शोध प्रबंध हैं। इसके अतिरिक्त पंजाबी उपन्यास ‘बेबिसाहे’ का हिंदी अनुवाद भी किया है। महिला शोषण के खिलाफ नाटकों और आंदोलनों में भी इनकी सहभागिता दमोह से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक रही है।

इस संवेदनशील और प्रतिभावान कवयित्री की कुछ कविताओं को हम ‘नये कदम – नये स्वर’ में प्रकाशित कर हिंदी के विशाल कविता प्रेमियों के सम्मुख रख रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि आप भी इन कविताओं को पढ़कर इस ‘नये कदम’ और ‘नये स्वर’ का स्वागत करेंगे-


पांच कविताएं/अंजना बख्शी

(1)बेटियाँ


बेटियाँ रिश्तों-सी पाक होती हैं
जो बुनती हैं एक शाल
अपने संबंधों के धागे से।

बेटियाँ धान-सी होती हैं
पक जाने पर जिन्हें
कट जाना होता है जड़ से अपनी
फिर रोप दिया जाता है जिन्हें
नई ज़मीन में।

बेटियाँ मंदिर की घंटियाँ होती हैं
जो बजा करती हैं
कभी पीहर तो कभी ससुराल में।

बेटियाँ पतंगें होती हैं
जो कट जाया करती हैं अपनी ही डोर से
और हो जाती हैं परायी।

बेटियाँ टेलिस्कोप-सी होती हैं
जो दिखा देती हैं– दूर की चीज़ पास।

बेटियाँ इन्द्रधनुष-सी होती हैं, रंग-बिरंगी
करती हैं बारिश और धूप के आने का इंतजार
और बिखेर देती हैं जीवन में इन्द्रधनुषी छटा।

बेटियाँ चकरी-सी होती हैं
जो घूमती हैं अपनी ही परिधि में
चक्र-दर-चक्र चलती हैं अनवरत
बिना ग्रीस और तेल की चिकनाई लिए
मकड़जाले-सा बना लेती हैं
अपने इर्द-गिर्द एक घेरा
जिसमें फंस जाती हैं वे स्वयं ही।

बेटियाँ शीरीं-सी होती हैं
मीठी और चाशनी-सी रसदार
बेटियाँ गूँथ दी जाती हैं आटे-सी
बन जाने को गोल-गोल संबंधों की रोटियाँ
देने एक बीज को जन्म।

बेटियाँ दीये की लौ-सी होती हैं सुर्ख लाल
जो बुझ जाने पर, दे जाती हैं चारों ओर
स्याह अंधेरा और एक मौन आवाज़।

बेटियाँ मौसम की पर्यायवाची हैं
कभी सावन तो कभी भादो हो जाती हैं
कभी पतझड़-सी बेजान
और ठूँठ-सी शुष्क !

(2) अम्मा का सूप


अक्सर याद आता है
अम्मा का सूप
फटकती रहती घर के
आँगन में बैठी
कभी जौ, कभी धान
बीनती ना जाने
क्या-क्या उन गोल-गोल
राई के दानों के भीतर से
लगातार लुढ़कते जाते वे
अपने बीच के अंतराल को कम करते
अम्मा तन्मय रहती
उन्हें फटकने और बीनने में।

भीतर की आवाज़ों को
अम्मा अक्सर
अनसुना ही किया करती
चाय के कप पड़े-पड़े
ठंडे हो जाते
पर अम्मा का भारी-भरकम शरीर
भट्टी की आँच-सा तपता रहता
जाड़े में भी नहीं थकती
अम्मा निरंतर अपना काम करते-करते।

कभी बुदबुदाती
तो कभी ज़ोर-ज़ोर से
कल्लू को पुकारती
गाय भी रंभाना
शुरू कर देती अम्मा की
पुकार सुनकर।

अब अम्मा नहीं रही
रह गई है शेष
उनकी स्मृतियाँ और
अम्मा का वो आँगन
जहाँ अब न गायों का
रंभाना सुनाई देता है
ना ही अम्मा की वो
ठस्सेदार आवाज़।

(3) कराची से आती सदाएँ


रोती हैं मजारों पर
लाहौरी माताएँ।

बांट दी गई बेटियाँ
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सरहदों पर।

अम्मी की निगाहें
टिकी हैं हिन्दुस्तान की धरती पर
बीजी उड़िकती है राह
लाहौर जाने की।

उन्मुक्त विचरते पक्षियों को देख-देख
सरहदें हो जाती हैं बाग़-बाग़।

पर नहीं आता कोई
पैगाम कश्मीर की वादियों से
मिलने हिन्दुस्तान की सर-ज़मीं पर।

सियासी ताकतों और नापाक इरादों ने
कर दिया है क़त्ल
अम्मी-अब्बा के ख़्वाबों का
सलमा की उम्मीदों का
और मचा रही हैं स्यापा लाहौरी माताएँ
बेटियों के लुट-पिट जाने का
मौन ग़मगीन है
तालिबानी औरतों-मर्दों के
बारूद पे ढेर हो जाने पर।

लेकिन कराची से आ रही है सदाएँ
डरो मत...
मत डरो...
उठा ली है
शबनम ने बंदूक।

(4) औरतें


औरतें –
मनाती हैं उत्सव
दीवाली, होली और छठ का
करती हैं घर भर में रोशनी
और बिखेर देती हैं कई रंगों में रंगी
खुशियों की मुस्कान
फिर, सूर्य देव से करती हैं
कामना पुत्र की लम्बी आयु के लिए।

औरतें –
मुस्कराती हैं
सास के ताने सुनकर
पति की डांट खाकर
और पड़ोसियों के उलाहनों में भी।

औरतें –
अपनी गोल-गोल
आँखों में छिपा लेती हैं
दर्द के आँसू
हृदय में तारों-सी वेदना
और जिस्म पर पड़े
निशानों की लकीरें।

औरतें –
बना लेती हैं
अपने को गाय-सा
बंध जाने को किसी खूंटे से।

औरतें –
मनाती है उत्सव
मुर्हरम का हर रोज़
खाकर कोड़े
जीवन में अपने।

औरतें –
मनाती हैं उत्सव
रखकर करवाचौथ का व्रत
पति की लम्बी उम्र के लिए
और छटपटाती हैं रात भर
अपनी ही मुक्ति के लिए।

औरतें –
मनाती हैं उत्सव
बेटों के परदेस से
लौट आने पर
और खुद भेज दी जाती हैं
वृद्धाश्रम के किसी कोने में।

(5) रुको बाबा


जख़्म अभी हरे हैं अम्मा
मत कुरेदो इन्हें
पक जाने दो
लल्ली के बापू की कच्ची दारू
जैसे पक जाया करती है भट्टी में।

दाग़ अभी गहरे हैं बाबा
मत कुरेदो
इन्हें सूख जाने दो
रामकली के जूड़े में
लगे फूल की तरह।

जख़्म अभी गहरे हैं बाबा
छिपकली की कटी पूंछ की तरह
हो जाने दो कई-कई
रंगों में परिवर्तित।

क्षणभर तो रुको बाबा
झाँक लूँ अपने ही भीतर
बिछा लूँ
गुलाबी चादर से सज़ा बिस्तर
लगा लूँ सुर्ख़ गुलाब-सा तकिया
और रख लूँ
सिरहाने पानी की सुराही
और मद्धिम-मद्धिम आँच
पर जलती सुर्ख़
अंगीठी।
00
जन्म : 5 जुलाई 1974, दमोह(मध्य प्रदेश)
शिक्षा : एम. फिल. (हिन्दी अनुवाद), एम.सी.जे. (जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रकाशन : कादम्बिनी, कथादेश, अक्षरा, जनसत्ता, राष्ट्रीय-सहारा तथा अनेक राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। नेपाली, तेलेगू, उर्दू, उड़िया और पंजाबी में कविताएं अनूदित। “गुलाबी रंगोंवाली वो देह” पहला कविता संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित।

सम्मान : ‘कादम्बिनी युवा कविता’ पुरस्कार, डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान।
सम्प्रति : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधरत।
संपर्क : 207, साबरमती हॉस्टल
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी
नई दिल्ली–110067
ईमेल : anjanajnu5@yahoo.co.in

शुक्रवार, 9 मई 2008

कल के कवि



सुश्री सी.आर.राजश्री बीएस.सी, एम.ए. (हिन्दी), एम.फिल, पी.जी.डी.टी हैं और दक्षिण भारत के कोयंबत्तूर जिले में डॉ.जी.आर.दामोदरन विज्ञान महाविद्यालय में विज्ञान, कामर्स और प्रबंधन के प्रथम वर्ष के छात्रों को द्वितीय भाषा के तौर पर हिन्दी पढ़ाती हैं। वह एक शिक्षिका ही नहीं, कवयित्री और लेखिका भी हैं। विज्ञान, कामर्स और प्रबंधन के क्षेत्र में अपने कैरिअर को बनाने की शिक्षा प्राप्त करने आए छात्रों में राजश्री जी साहित्य के प्रति ललक पैदा करने, अच्छा साहित्य पढ़ने और साहित्य लेखन में अभिरुचि जाग्रत करने के प्रयास अपने महाविद्यालय में निरंतर करती रहती हैं। आज घर-परिवार और शिक्षण संस्थानों में साहित्य के प्रति कोई गंभीर चिंता और उत्साह नहीं रहा है, जिसके चलते नई पीढ़ी में साहित्य के प्रति कोई खास रुझान हमें दिखलाई नहीं देता। जो अभिभावक और अध्यापक इस रुझान को बच्चों में पैदा करने की कोशिश करते हैं, वो नि:संदेह एक बड़ा काम कर रहे हैं। राजश्री जी ने अपने महाविद्यालय में बी काम और बी बी एम के प्रथम वर्ष के छात्रों को कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया और उन्हें एक घंटे का समय दिया। कुछ छात्र जो कविताएं लिखने में हिचकिचा रहे थे, उन्हें मिलकर काव्य-सृजन करने के लिए प्रेरित किया। और देखिए करिश्मा कि उनकी मेहनत सफल हुई। जो कविताएं इस प्रयास में सामने आईं, वे विस्मत करने वाली थीं। उनमें से कुछ कविताएं हम “नये कदम-नये स्वर” के इस अंक में प्रकाशित कर रहे हैं। विद्वानों को ये अपरिपक्व और अनगढ़ -सी दीख सकती हैं, पर यह अपरिपक्वता और अनगढ़ता अभ्यास से और अग्रजों से मिलने वाले प्रोत्साहन और प्रेरणा से धीरे-धीरे दूर हो सकती है। और कौन नहीं जानता कि हर लेखक-कवि अपने शुरुआती दौर में ऐसी ही अपरिपक्वता और अनगढ़ता से गुजरता है। इस नई पीढ़ी में ही कल के लेखक, कवि, कलाकार छुपे हैं। बस, ज़रूरत है- उचित हवा, धूप और पानी की।

कोयल
दीपिका
बी काम(प्रथम वर्ष)


कोयल की आवाज मीठी
लगती सुबह सबको भली
भर देती सब के मन में खुशहाली
कर बैठते हम बातें कुछ निराली

हे कोयल किसने तुझे गीत सिखाया
तूने जैसे सबके मन को है लुभाया
काश! हम तुझे देख पाते
बधाई देने तुम्हें हम मिलने आते

किसका है अब डर तुझे
हमारी शक्ति है साथ, न छुप अब पत्तों में


बदलते रिश्ते
हिमांशु गुप्ता
(बी काम)


ज़िन्दगी हर पल लेती है इम्तिहान
चाहे ले ही क्यों न ले मेरी जान
जिनसे की वफा उम्मीद, वही बेवफ़ा निकले
दोस्त दोस्त न रहे दुश्मन बन गए
अब मैं तरसता हूँ, किसी एक से बात करने के लिए
कोई एक तो हो जिससे अपने मन की बात कह सकूँ
रि्श्तों का मतलब ही भूल गया हूँ
इतना धोखा खाया है की अब
रिश्तों से भरोसा ही उठ गया है
उसको जिसे मैंने माना था मेरा हमसफर
उसी ने दगा दे दिया और अपनी बेवफाई दिखाई
समझता था जिसको अपने दिल के करीब
उसने ऐसा सिला दिया के दिल दहल गया
न भरोसा रहा अब किसी पर, न ही रहा है विश्वास
इन बदलते रिश्तों से रहना चाहता हूँ मैं दूर
शायद तनहाई में ऐसा कुछ हो जाए
जो रिश्तों का महत्व को फिर से समझा सके
और रिश्तों पर विश्वास करना मुझे आ जाए
क्योंकि यह रिश्ते होते हैं अनमोल
और जिंदगी कायम है इन्हीं रिश्तों पर
पूरी कायनात टिकी है, रिश्तों के बलबूते पर,
इसलिए मैं रिश्तों की कदर करता हूँ
और रिश्तों को सोच समझकर जोड़ता हूँ।

तू ही बता मेरे मन
निहाल और अमृत(बी बी एम- प्रथम वर्ष)


जिंदगी के हर पल में मेरे साथ देने वाले।
मेरे चेहरे के भाव प्रकट करने वाले।
क्या मेरा आने वाला कल इस पल की तरह सुखमय होगा।
तू ही बता मेरे मन।
जिंदगी की भाग–दौड़ व्यस्त कामकाज
बना देती है मुझे अधिकांश तन्हा
किस पर विश्वास करूँ तुमसे ज्यादा
क्योंकि तू ही है मेरा दोस्त और मेरी साया
सच है न थे, तू ही बता मेरे मन।
तू ही है मेरा आधार
तुझ से कुछ भी न है छुपा क्या बुरा क्या भाला
तू ख्यालों में मेरे साथ निभाता
बन मुझे सही राह दिखाता
सच है न ये तू ही बता मेरे मन।

तीन कविताएं
रामाचन्द्रन वी(बी काम-प्रथम वर्ष)


(1) धरती
वन से बादल, बादल से वन
खिल उठा इनसे धरती का यौवन
चाँद-सितारे चमकीले आभूषण
फूल रंगीले लूट लेते हैं मन
नदियों-झरने इसका बचपन
मदमस्त हुआ सब का तन-मन
आक्रमण कर बैठा अब इसपर ‘प्रदूषण’
करते हैं जिस कारण अब क्रंदन
धरती और मानव का है अटूट बंधन
आओ मिलकर करें इसका हम रक्षण

(2)लक्ष्य

जीवन का एक लक्ष्य बनाओ
उसकी ओर फिर बढ़ती जाओ
अपनी लगन और परिश्रम द्वारा
पहुँच अपनी लक्ष्य तक बढ़ाओ
सर्वप्रथम लक्ष्य को तय करना
उसकी प्राप्ति हेतु यत्न फिर करना
दृढ़ अपनी लक्ष्य पर सदा रहना
निडर हो बाधाओं का सामना करना
लक्ष्यवाले निश्चय ही सफलता पाते हैं
लक्ष्यहीन इससे वंचित रह जाते हैं

(3)गुरु वन्दना
(शिक्षक दिवस के अवसर पर)

मेरी अच्छी टीचर जी
तुमने यह मुझको ज्ञान दिया
मेहनत कर आगे बढ़ने का
सदा मुझे वरदान दिया
मैं जब (महा)विद्यालय में आया था
चिन्तित आर घबराया था
आपने मुझको थाम लिया
फिर कभी न मैंने लड़खड़ाया था
जब कठिनाइयों ने मुझको घेरा था
निराशा ने मुझको रूलाया था
आपने मेरे आँसू पोंछे थे
हिम्मत का पाठ पढ़ाया था
कभी-कभी जो आपने मुझे डाँटा था
मेरी गलती समझाकर आपने मुझे समझाया था
विद्या और मेहनत की दीप जो तुमने
मन में मेरे जलाया था
इसकी ज्योति जग में फैले
यह ही मेरी अभिलाषा है
सच्चाई के पद पर चलकर
लक्ष्य हमाको पाना है
लेकर आशीर्वाद तुम्हारा
आगे बढ़ने जाना है।
मेरी दुआ है मेरी मैडम
कि आप हमेशा खुश रहें
रब से जो भी माँगा है
वो सब कुछ जीवन में प्राप्त करें
मेरी अच्छी टीचर जी
आपने मुझको ज्ञान दिया
मेहनत कर आगे बढ़ने का
सदा मुझे वरदान दिया

मेरे प्रिय भाई
रश्मि एस नाहर(बी काम-प्रथम वर्ष)

मेरा छोटा-सा प्यारा-सा नटखट भाई
हम बहिनों का दुलारा है यह भाई
हो तुम सबसे छोटे और न्यारे
माता पिता, घरवालों के आँखों के तारे

बहिनों को बड़ा सताते हो तुम
दोस्तों के संग लड़ते हो तुम
बचकानी हरकत सदा करते हो तुम
अपनी जिम्मेदारियों भी निभाते हो तुम
समय-समय पर बड़ों जैसा व्यवहार करते हो तुम
कभी-कभी हमसे रूठ भी जाते हो तुम
मगर फिर जल्द ही मान जाते हो तुम
संग तुम्हारा हमें बहुत अच्छा लगता है
तुम-सा भाई किसी को शायद नहीं मिल सकता है

कुछ संयुक्त प्रयास


संगीत
स्नेहा पिल्लई,निखत अमृत,मानव परमांदक
निहाल उत्तमानी,जुज़र एम चतरीवाला(बी बी एम)

सात सुरों का है ये संगम
सुनकर जिसे भूल जाते हैं सब गम
हर दुखियारों का हैं ये मरहम
सात सुरों का यह अद्भुत संगम

गीत, कविता हो या भजन कीर्तन,
सभी को करते है आनंदित और मगन,
जिसकी साधना में लगती है लगन,
सात सुरों का यह भव्य संगम।

संगीत की कोई सीमा नहीं है
संगीत का कोई मजहब नहीं है
हर कोई इसे अपना सकता है
हर किसी के मन का ये छू सकता है
सात सुरों का है ये संगम
सात सुरों का है ये भव्य संगम
सात सुरों का है ये मधुर संगम

मानव

निखत




स्नेहा पिल्लई


प्रकृति
स्नेहा पिल्लई,निखत अमृत,मानव परमांदक
निहाल उत्तमानी,जुज़र एम चतरीवाला,ऐश्वर्या
(बी बी एम-प्रथम वर्ष)

नीला गगन, खुला आसमान, सनसनाती पवन
हरी ज़मीन, बहती नदी, बेहलाती सबका मन
चिडि़यों की चहचहाहट, कोयल की कूक
सुनते ही भुला देते सब दुख
पर्वत की शोभा, झरनों की झंकार
धरती में टंकार
जंगल में गूँज जानवरों की
व सूखे-बिखरे पत्तों की
खामोशी बहुत कुछ कहती
प्रकृति की यही है नियति
मत तोड़ो इस खामोशी को…
चलो, बचाए प्रकृति को।
आओ मिलकर बचाने बढाये हम कदम
इस सिलसिले में हमारे बहक न जाए कदम
मिलकर आओ यह ले शपथ
प्रकृति को प्रदूषण से बचाकर रखे इसे स्वस्थ।

ऐश्वर्या


अनुरोध : आपको भी यदि अपने आसपास, अपने घर-परिवार, स्कूल-कालेज में नये सृजन की आहट सुनाई/दिखाई देती हो, तो उसे अवश्य प्रोत्साहित करें और हमें भी बताएं। “नये कदम-नये स्वर” में सृजन की नई आहटों का स्वागत है।

रविवार, 6 अप्रैल 2008

ग्यारह बरस की लेखिका– शाद्वल


नये कदम-नये स्वर” के प्रथम अंक में आपका परिचय करवा रहे हैं – ग्यारह बरस की एक नन्हीं लेखिका से। नाम है– शाद्वल। उम्र है– 11 वर्ष। जो माउंट कारमेल स्कूल, द्वारका, नई दिल्ली की छठी कक्षा की छात्रा है। लिखने-पढ़ने और अभिनय में अभिरुचि रखती है। कई कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। देशभक्ति पर लिखित उसका एक रेडियो नाटक “सच्चा देशभक्त” आकाशवाणी, दिल्ली के ‘बाल-जगत’ कार्यक्रम के तहत प्रसारित हो चुका है। अभी हाल में “मेरी ग्यारह कहानियाँ” नाम से एक बाल-कहानी संग्रह बसंती प्रकाशन, पिलंजी, सरोजनी नगर, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है जिसका विमोचन “18वें नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले(2–10 फरवरी 2008)” में वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी एवं वरिष्ठ कवि-ग़ज़लकार शेरजंग गर्ग ने किया। इसी पुस्तक से प्रस्तुत हैं, यहाँ दो बाल कहानियाँ–
अच्छा कौन ?
-शाद्वल

एक बार कमल का फूल गुलाब के फूल को चिढ़ा रहा था कि उसकी खुशबू तो इतनी अच्छी है लेकिन उसको कोई सूंघ ही नहीं पाता क्योंकि जैसे ही उसे सूंघने के लिए कोई जाता है, उसके हाथ में कांटा चुभ जाता है। यह बोलते-बोलते कमल का फूल जोर-जोर से ठहाका मार कर हँसने लगा। गुलाब को यह सब सुनकर बहुत बुरा लग रहा था कि भगवान ने उसे ऐसा क्यों बनाया। वह उदासी भरे मन से अपनी माँ के पास जाकर रोने लगा।
जब गुलाब के फूल की माँ ने उससे पूछा कि क्या बात थी तो उसने सब वैसा ही बता दिया जैसा हुआ था। यह सब सुनकर गुलाब की मम्मी को हँसी आ गई, और वह बोली– “बस, इतनी-सी बात है ! फिर उन्होंने उसे प्यार से समझाया, “ये कांटे उसको नहीं चुभते जो हमें सूंघने आते हैं। यह उन्हें चुभते हैं जो हमें तोड़ने आते हैं और बचाव के लिए कांटे रखना कोई बुरी बात नहीं।"
गुलाब के फूल को अब समझ में आ रहा था कि कमल के फूल ने उससे गलत कहा था। फिर गुलाब की मम्मी बोली– “जब किसी को अपने प्यार का इजहार करना हो, किसी का जन्मदिन हो या किसी की ऐनवर्सरी हो, उन्हें गुलदस्ते में ज्यादातर गुलाब का फूल ही मिलता है। गुलाब के फूल के तो कई रंग भी होते हैं, जैसे - लाल, पीला, सफेद और काला आदि। कमल के फूल के पास तो एक ही रंग होता है- गुलाबी। गुलाबी शब्द भी गुलाब से बना है।"
अब बेबी गुलाब को समझ आने लगा कि वह कितना ज़रूरी है। उसने सोच लिया कि अब वह कमल के फूल से जाकर बदला लेगा। वह एकदम से उठा और जाने लगा, लेकिन उसकी माँ ने उसे रोक लिया और बोली– “अगर कमल ने गलत काम किया तो क्या उसे चिढ़ा कर तुम भी गलत काम करना चाहते हो ?”
गुलाब के फूल को कुछ समझ नहीं आया कि क्या करना चाहिए। माँ से पूछने पर उसकी माँ ने उसे बताया– “ऐसा नहीं है कि सारी अच्छाई गुलाब के फूल में ही है, कुछ अच्छाई कमल के फूल में भी है। भले हम उसे गुलदस्ते में नहीं डालते लेकिन उसकी खुशबू का जवाब नहीं और उसकी खुशबू जितनी अच्छी है वह उतना ही सुंदर भी होता है। कमल की जो डंडी होती है, उसे कमल-ककड़ी कहते हैं, जिसकी सब्जी भी बनती है, और उसका स्वाद लाजवाब होता है। इन्हीं सब के साथ-साथ उसकी भी कुछ बुराई होती है जैसे– वो कीचड़ में उगता है, आदि।"
जब गुलाब के फूल ने यह सुना तो उसे लगा कि उसकी माँ ने ठीक ही कहा कि कोई भी चीज बिलकुल सही नहीं होती। उसमें भी कुछ न कुछ कमी होती है। गुलाब का फूल कमल के फूल के पास गया और उसे वह सब बता दिया जो उसकी माँ ने उसे बताया था। जब कमल के फूल ने यह सब सुना तो उसको गुलाब के फूल की बात में दम लगा और उसने गुलाब को गले से लगा लिया और उससे माफी मांगी। अब वे दोनों रोज मिलते हैं और उन दोनों की गहरी दोस्ती आज भी पूरे जंगल में मशहूर है।

बहादुर लड़कियाँ
-शाद्वल

मीना और रेनू बहुत अच्छी सहेलियाँ थीं। वे जो भी काम करतीं, एक साथ करतीं। जब देखो मीना, रेनू के घर पर होती, फिर पांच मिनट के बाद देखो तो रेनू, मीना के घर पर होती। एक दिन गेम्स का पीरियड था तो सर ने फुटबाल खिलाया तो दोनों अलग-अलग टीम में हो गईं और रेनू जीत गई। उसने मीना को चिढ़ाना शुरू कर दिया। मीना को अच्छा नहीं लगा। उसने उससे बात करना छोड़ दिया।
रेनू को जब ये लगा कि मीना ने उससे बात करना छोड़ दिया है तो उसको अपनी गलती समझ में आई। उसने कई बार मीना से माफी मांगने की कोशिश की, मगर मीना हमेशा मुँह घुमा के चल देती। परेशानी तो दोनों को ही हो रही थी। लंच किसी के भी साथ शेयर नहीं कर सकते। छुट्टी के समय अकेले घर जाना पड़ता था। कोई भी खेल नहीं पा रहा था। अकेले कैसे खेलते ?
एक दिन जब रेनू स्कूल से वापस आ रही थी तो उसने देखा कि कुछ लोग मीना को जबरन पकड़कर ले जा रहे हैं। जब उसने यह देखा तो वह चिल्लाने ही वाली थी कि उसे याद आया कि मीना से तो उसकी दोस्ती टूट हुई है। लेकिन, फिर भी उससे रुका नहीं गया। वह ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाई और आगे बढ़ गई। इतने में कुछ लोग आ गए और उन बदमाशों को मारना शुरू कर दिया।
तब तक रेनू वहाँ आ गई। उसने एक आदमी को पीछे गिरा दिया। एक के पैर को खींच लिया। वह खड़ा नहीं रह सका। वह भी नीचे गिर गया। बस, फिर क्या था, मीना ने एक को धक्का दिया और वह भी गिर पड़ा। जब तक वे लोग उठते और उन दोनों को पकड़ते तब तक वे दोनों बहुत दूर जा चुकी थीं। फिर जब दोनों घर पहुँची तो देखा कि मम्मी और पापा बहुत परेशान हो रहे थे। जब उन्होंने पूछा कि क्या हुआ तो रेनू ने सारी बात बता दी।
जब उसके पापा को यह पता चला तो उन्होंने सीधा पुलिस को फोन कर दिया और सब कुछ बता दिया। मीना को बहुत अच्छा लग रहा था क्योंकि रेनू ने उसकी जान बचाई और वे दोनों फिर से वैसी ही सहेलियाँ बन गई, जैसे वे पहले थीं। रेनू ने मीना से माफी मांग ली और वे खुशी के दिन फिर वापस आ गए।
दो-तीन दिन के बाद पुलिस का फोन आया और उन्होंने बताया कि बदमा्श पकड़े गए हैं। वे मीना को इसलिए पकड़ना चाहते थे ताकि उसके पापा से कुछ पैसे लेकर मीना को छोड़ दें, इस तरह उनके पास बहुत पैसा हो जाता। लेकिन अब चिंता करने वाली कोई बात नहीं थी क्योंकि अब वे जेल में थे। जब और लोगों ने यह सुना तो वे खुश हो गए।

संपर्क :
317,गुरू अपार्टमेंट्स
प्लॉट नं0 2, सेक्टर–6
द्वारका, नई दिल्ली–110075
दूरभाष : 011–28082534